मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

छत्तीसगढ़ी व्यंग्य- वाह रे गोंदली! तोर महिमा हे अपरमपार

व्यंग्यकार- श्री विट्ठलराम साहू 'निश्छल'
आज काल खोर-गली इसकूल दफ्तर बजार घर सबो डाहार गोंदलीच के गोठ चलत हे। जने-मने गोंदली ह कहीं पुरखा तरे के जीनीस आय तइसे। तहइा के जमाना म गोंदली ल कुकुर नई सूंघत रिहिसे। आज आदमी ल गोंदली नोहर हो गेय हे। गोंदली के सेती हमर परोसी घर में रोज झगरा मातथे। जब परोसी जेंय बर बइठथे त ओखर संघरा मे गोंदली के सलाद अवस करके रहिथे। काबर नई खाहीं। बपरा ल भगवान ह बने रोजे दु-चार पइसा देवा देथे दफ्तर म। गोंदली ल हसियते वाला मन खा सकथें। हमर सहीक मन तो सपना म घलौ नई सपना सकन। गोंदली ह बिगन हैसियत वाला मन ल रोवावत हे। होटल वाला मन पीआजी भजिया म लाल भाजी नहीं ते बंधी भाजी डारत हें। 
आजकल-गोंदली खाना सान के बात समझे जाथे। ऊंखर गिनती बड़े अदमी म होथे। अतक मांहगी के गोंदली ल भला छोटे अदमी ह कइसे खावन सकही ? हमर बबा पाहरो म बइठइया मन घलो एकक ओली धर के लेंगय। दिनोंदिन मांहगाई ह बेटी मन सहीक बाढ़त हे। तेखरे सेती मोर गोसईन ह साग मे अब गोंदली के बदला अऊ कांही कुछु के फोरन डारथे। फेर का करबे परोसी मन के सेती एकात पाव राखेच ल परथे। रोज क अऊ कांही जीनीस सहीक गोंदली ल घलो मांगथे। उन मन का जानही कि गोंदली आजकाल का भाव मिलत हे तेन ल।
अपन आन-बान-सान के रक्छा बर गोंदली राखेच ल परथे। मोर गोसईन के संगवारी बइठे बर आथें त ओ ह गोंदलीच के गोठ करथे। कहिथे-बिगर गोंदली के तो साग ह मीठाबे नई करय। चहे गोंदली सौ रूपिया हो जाय हमर घर माई-पिल्ला साग के अलाद गोंदली मांगथे। मांस-मछरी के दिन तो आधा किलो, तीन पाव तो लागबेच करथे। ओ ह गोंदली खवई के बखान करके अपन आप ल बड़े आदमी होय के माहसूस करावत रीहीस। मोर गोसईन ल ओखर बड़ई मरई ह सुहावत नई रीहीस। ओ मन-मन म गुसियावत रिहिस। जइसे गांव वाला मन सिरपंच के गोठ सुनके मन म गारी देंथे तइसे।
मोर गोसईन ल ओखर गोठ ल सुन के अपन हैसियत के गियान होगे। तभो ले ओखर आगू म अपन सान ल बचाय म पास होगे। अऊ कहिस-हमूमन आघू अब्बड़ खावन गोंदली। ओखर संगवारी ह टप्प ले बीचे म कहिथे- अब गोंदली मांहगी होगे हे तेखरे सेती खाय ल छोंड़ देव ? ना-ही गोंदली ह तो ये दे अभी-अभी मांहगिआईस हाबे, हमन जबले तीरीथ धाम कर के आय हन, तब ले तियागे हन, उही कोती चघा के आगेंन। कहूं-कहूं मन किहिस-‘‘जौंन तीरीथ-धाम करथें तौन मन ल कांही कुछु के तियाग करना चाही कहिथंे। अतका गोठल सुन के परोसिन के मुंह उतरगे। मैं गोसईन के हुसियारी ल मान गेंव, का जोरदार परहार करीस, ओखर बोलती बंद होगे।‘‘
फेर मैं फोकटे के फोकटे अपन सान बघरई ल भावंव नहीं। आलू-गोंदली के दुकान म पहिली बेर मैं अपन हैसियत ल जानेंव। महंगाई ह तो लोगन के परवार के बजट ल बिगाड़ देय हे मैं तो खरचा करे म हुसियार हौंव। मैं कहिथंव-मैं कोनो देस के सरकार थोरहे हांव तेन म सरलग घाटा के बजट म जिनगी ल चलावत राहांव। 
मैं घर में बइठे-बइठे परवारिक बजट उपर विचार करत रेहेंव ततकेबेरा एक झन संगवारी अईस। 
मोला संसो म परे देखके कहिथे-तें कबीर बरोबर काबर उदासी हावस, का तहूं ल ये माया ठगनी ह ठगे हे ? मैं केहेंव का बतावंव संगी ये तरहा गोंदली के सेती घर ते घर, संगवारी, दफ्तर सब मेंरन नमूसी झेले ल परत हे। गोंदली ह घर के बजट ल बिगाड़ देय हे। गोंदली के सेती समाज म मोर नाक कटाय सहीक हो गेय हे। अऊ ते अऊ ये आलू गोंदली दुकान वाला मनके नजर म मैं हीनहर हो गेय हंव। छोंड़ मोरे बात नहीं, में तो जम्मों सभिय समाज के सोंचथंव। आज कोनो ल येखर संसो करे के समय नई हे।
मोर बक्बक् लओ ह नई झेल सकीस अऊ कहिस- तैं अदमी आस धुन कोनों हिन्दी साहित्य के आलोचक, जौंन ह अपने विचार ल दूसरा मन ल मनवाए ल देखथें। इंहा सब झन अपने सुआरत ल देखईया हें। बेपारी मुनाफा कमा के अपन तिजोरी भरत हें, अधिकारी घूस खा के अपन बैंक बढ़ावत हें, नेता मन के करनी ल तो बताए के जरूरत नई हे, जगजाहिर हे। ओ मन आज ले जौंन करीन ओ कोनों नेक काम ले कमती नई हे। इहां तक गाय गरू के चारा तक नई बांचिस। अऊ तैं देस के संसो म बूड़ हस। ‘जब जनता अऊ सरकार ल येखर संसो नई हे त कईसे कर डारबे ? गोंदली खयेच ल छोंड़ देय। ये जुग म तैं-मैं जीयत हन सुनइया के अंकाल परे हे। ऊंखर जघा अब केऊ किसम के देखईया मन आगें। जइसे सिनिमा राहाय आज सरकार मुक्का देखइया हो गये हे। समाज म जौन भी होवत हे, खराब ले खराब घटना तीनों ल ओ ह अंधरा बन के कलेचुप निहारत रहिथे।
गोंदली के जघा अऊ कोनों जिनिस नई लेय सकय तेखर सेती गोंदली इतरावत हे। वाह रे, गोंदली तोर महिमा अपरम्पार हे।
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मौहारी भाठा महासमुंद छत्तीसगढ़

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